कहानियाँ 10

अधूरा प्यार 


"ओए...मेरी बकरी को क्यूँ मारा?" वो गुस्से में चिल्लाई।
"मेरी रोटियाँ खा गई। मैंने भी गुस्से में कहा।
" जानवर है किवाड़ खुले छोड़ेगा तो खाएगी, और बना ले ।" उसमे दोनों हाथ कमर के लगाते हुए तुनक कर कहा।
" कैसे बना लूँ? कॉलेज का टाइम हो गया है।" कहते हुए मेरी आँखों में अपने आप ही आँसू आ गए।
"अरे..अरे.. रो मत, तू तैयार हो। मैं बना देती हूँ।"
उसे दया आ गई।
यह पहली मुलाक़ात थी उसकी और मेरी। गाँव में कॉलेज नही था इस कारण पढ़ने के लिए शहर आया था। यह किसी रिश्तेदार का एक कमरे का मकान था।
बिना किराए का था। शहर के बाहर था। आस-पास भी गरीब तबके के घर थे।
सब काम अकेले ही करने पड़ते थे। खाना-बनाना, कपड़े धोना, घर की साफ़-सफाई करना।
कुछ ही दिनों में पता चल गया कि क्यों बहिने ताज़ा पोछा लगाए फर्श पर गंदे पैर रखने पर चिल्लाती थी, क्यों गन्दे कपड़े देखकर माँ गुस्सा करती थी?

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बकरी के बहाने से ही सही उस दिन नरम रोटियाँ खाने को मिली तो माँ की याद आ गई। वरना मैं तो दो मोटी रोटियाँ बनाया करता था। अगर जल भी जाती तो तीसरी नही बनाता था। जली-जली निकाल कर खा जाता।
उसके बाद वह कई दिनों तक दिखाई नही दी। घर उसका पास में ही था। दो घर छोड़कर सौ मीटर के फासले पर।
उसका बाप चाट का ठेला लगाया करता था। अच्छा आदमी था। सीधा-सीधा सा।
कुछ रोज बाद वह अपने छोटे भाई के साथ आई।
आते ही सवाल किया:-" तुम मेरे भाई को ट्यूशन करा सकते हो?"
"नही"
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"क्यूँ?
"टाइम नही है। मेरी पढ़ाई डिस्टर्ब होगी।"
"बदले में मैं तुम्हारा खाना बना दूँगी।"
मैंने कोई जवाब नही दिया तो वह और लालच दे कर बोली:-बर्तन भी साफ़ कर दूंगी।"
अब मुझे भी लालच आ ही गया:-"कपड़े भी धो दो तो पढ़ा दूँगा।"
वो मान गई।
इस तरह से उसका रोज घर में आना-जाना होने लगा।
वो काम करती रहती और मैं उसके भाई को पढ़ा रहा होता। ज्यादा बात नही होती। उसका भाई 8वीं कक्षा में था। खूब होशियार था। इस कारण ज्यादा माथा-पच्ची नही करनी पड़ती थी। कभी-कभी वह घर की सफाई भी कर दिया करती थी।
दिन गुजरने लगे। एक रोज शाम को वो आई तो उसके हाथ में एक बड़ी सी कुल्फी थी।
मुझे दी तो मैंने पूछ लिया:-" कहाँ से लाई हो'?
"घर से। आज बरसात हो गई तो कुल्फियां नही बिकी।"
इतना कह कर वह उदास हो गई।
मैंने फिर पूछा:-" मग़र तुम्हारे पापा तो समोसे-कचोरी का ठेला लगाते हैं?
वो:-" सर्दियों में समोसे-कचोरी और गर्मियों में कुल्फी।"
मैं:-"बरसात हो गई तो कुल्फी नही बिकी मतलब?"
वो:-" ठण्ड के कारण लोग कुल्फी नही खाते।"
"ओह" मैंने गहरी साँस छोड़ी। आज पता चला की जिस बरसात के आने से हम गावों में नाचने-कूदने लगते हैं वो किसी का यूँ नुकसान भी कर देती है।
मैंने आज उसे गौर से देखा था। गम्भीर मुद्रा में वो उम्र से बड़ी लगी। समझदार भी, मासूम भी।
उस दिन एक बात यह भी जानी कि ठेले का माल नही बिकने पर पुरे घर में उदासी छा जाती है। उसका भाई भी चुप-चुप सा था।
धीरे-धीरे वक़्त गुजरने लगा।
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मैं कभी-कभार उसके घर भी जाने लगा। विशेषतौर पर किसी त्यौहार या उत्सव पर। कई बार उससे नजरें मिलती तो मिली ही रह जाती। पता नही क्यूँ?
कुछ बातें मैंने ठेले या थड़ी वालों की और जानी। कि जो कुल्फी या समोसे कचोरी हम खाते हैं उसमे अकेले आदमी की मेहनत नही लगी होती बल्कि पूरे परिवार की कड़ी आजमाइश और हाडतोड़ मेहनत के बाद ठेला घर से निकलता है। बच्चे- बूढ़े औरतें सब मिलकर सामन तैयार करते हैं।
वह पापा का हाथ बंटाने के आलावा और भी काम करती थी; बूंदी बाँधने का। बूंदी मतलब किसी ओढ़नी या चुनरी पर धागे से गोल-गोल बिंदु बनाना। बिंदु बनाने के बाद चुनरी की रंगाई करने पर डिजाइन तैयार हो जाती है।
मैंने बूंदी बाँधने का काम करते उसे बहुत बार देखा था।
एक दिन पूछ लिया:-" ये काम तुम क्यूँ करती हो?"
वह बोली:-"पैसे मिलते हैं।"
"क्या करोगी पैसों का?"
"इकठ्ठे करती हूँ।"
"कितने हो गए?"
"यही कोई छः-सात हजार।"
"मुझे हजार रुपये उधार चाहिए। जल्दी लौटा दूंगा।" मैंने मांग लिए।
यह स्वभाविक सी बात है कि जरिया मिले तो आवश्यकताएं निकल आती है।
उसने सवाल किया:-"किस लिए चाहिए?"
"कारण पूछोगी तो रहने दो।" मैंने मायूसी के साथ कहा।
"ऐसे ही पूछ लिया। तू माँगे तो सारे दे दूँ।" उसकी ये आवाज़ अलग सी जान पड़ी। मग़र मैं उस वक़्त कुछ समझ नही पाया। पैसे मिल रहे थे उन्ही में खोकर रह गया। एक दोस्त से उदार लिए थे । कमबख्त दो -तीन बार माँग चूका था।
एक रोज मेरी जेब में गुलाब की टूटी पंखुड़ियाँ निकली। मग़र तब भी मैं यही सोच कर रह गया कि कॉलेज के किसी दोस्त ने चुपके से डाल दी होगी।
उस समय इतनी समझ भी नही थी।
एक रोज कॉलेज की एक लड़की घर आई कुछ नोट्स लेने। मैंने दे दिए। और वो बाहर से ही तुरंत चली गई।
जाने उसे कैसे पता चला। दो पहर में ही आ धमकी।
आते ही कहा:-" मैं कल से तुम्हारा कोई
काम नही करूंगी।"
"क्यूँ?
काफी देर तो उसने जवाब नही दिया। फिर धोने के लिए मेरे बिखरे कपड़े समेटने लगी।
"कहीं जा रही हो?" मैंने मासूमियत से पूछा।
"नही। बस काम नही करूंगी। मेरे भाई को भी मत पढ़ाना कल से।"
"तुम्हारे हजार रूपये कल दे दूंगा। कल घर से पैसे आ रहे हैं।" मुझे पैसे को लेकर शंका हुई थी।इस कारण पक्का आश्वासन दे दिया।
"पैसे नही चाहिए।"
"तो फिर ?" मैने आँखे उसके चेहरे पर गड़ा कर प्रश्न किया।
उसने एक बार नज़र मिलाई तो लगा हजारों प्रश्न थे उसकी आँखों में। मग़र मेरी समझ से बाहर थे।
उसने कोई जवाब नही दिया।
मेरे कपड़े लेकर चली गई।
अपने घर से ही घोकर लाया करती थी।
दूसरे दिन वह नही आई।
न उसका भाई आया।
मैंने जैसे-तैसे खाना बनाया। फिर खाकर कॉलेज चला गया। दोपहर को आया तो सीधा उसके घर चला गया। यह सोचकर की कारण तो जानू काम नही करने का।
उसने मुझे जो आदत डाली थी। उससे मैं फिर से नकारा हो गया था। अब काम करना मुश्किल था।
उसके घर पहुंचा तो पता चला वो बीमार है।
एक छप्पर में चारपाई पर लेटी थी अकेली। घर में उसकी मम्मी थी जो काम में लगी थी।
मैं उसके पास पहुंचा तो उसने मुँह फेर लिया करवट लेकर।
मैंने पूछा:-" दवाई ली क्या?"
"नही।" छोटा सा जवाब दिया बिना मेरी तरफ देखे।
"क्यों नही ली?
"मेरी मर्ज़ी। तुझे क्या?
"मुझसे नाराज़ क्यूँ हो ये तो बतादो।"
"तुम सब समझते हो, फिर मैं क्यूँ बताऊँ।"
"कुछ नही पता। तुम्हारी कसम। सुबह से परेसान हूँ। बता दो।"
" नही बताउंगी। जाओ यहाँ से।" इस बार आवाज़ रोने की सी थी।
मुझे जरा घबराहट सी हुई। डरते-डरते उसके हाथ को छूकर देखा तो मैं उछल कर रह गया। बहुत गर्म था।
मैंने उसकी मम्मी को पास बुलाकर बताया।
फिर हम दोनों उसे हॉस्पिटल ले गए।
डॉक्टर ने दवा दी और एडमिट कर लिया।
कुछ जाँच वगेरह होनी थी।
क्यूंकि शहर में एक दो डेंगू के मामले आ चुके थे।
मुझे अब चिंता सी होने लगी थी।
उसकी माँ घर चली गई। उसके पापा को बुलाने।
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मैं उसके पास अकेला था।
बुखार जरा कम हो गया था। वह गुमसुम सी लेटी थी। दीवार को घुर रही थी एकटक!!
मैंने उसके चैहरे को सहलाया तो उसकी आँखों में आँसू आ गए और मेरे भी।
मैंने भरे गले से पूछा:- "बताओगी नही?"
उसने आँखों में आँसू लिए मुस्कराकर कहा:-" अब बताने की जरूरत नही है। पता चल गया है कि तुझे मेरी परवाह है। है ना?"
मेरे होठों से अपने आप ही एक अल्फ़ाज़ निकला:-
" बहुत।"
दिल था कि दिल की भाषा समझ गया। समझ आ गई कि ये जो उसकी आदत सी पड़ गई थी। उसमे कुछ जज़्बात भी शामिल हो गए थे। पता ही नही चला कब?
"बस! अब मर भी जाऊँ तो कोई गिला नही।" उसने मेरे हाथ को कस कर दबाते हुए कहा।
उसके इस वाक्य का कोई जवाब मेरे लबों से नही निकला। मग़र आँखे थी जो जवाब को संभाल न सकी। बरस पड़ी।
वह उठ कर बैठ गई:- रोता क्यूँ है पागल? जिस दिन पहली बार तेरे लिए रोटी बनाई उसी दिन से चाहती हूँ। एक तू था निष्ठुर। कुछ समझने में इतना वक़्त ले गया।"
फिर अपने साथ मेरे आँसू भी पोछे।
उसके घर वाले आ गए।
रात हो गई। उसकी हालत में कोई सुधार नही हुआ।
फिर देर रात तक उसकी बीमारी की रिपोर्ट आ गई।
बताया गया उसे डेंगू है।
जान कर आग सी लग गई सीने में। एक गोला सा बना और दिल के बीचों-बीच स्थिर हो गया।
खून की कमी हो गई थी उसे। मेरा खून मैच हो गया ब+
था उसका भी। दो बोतल खून दिया मैंने तो जरा शकून सा मिला दिल को।
उस रात वह अचेत सी रही।
बार-बार अचेत अवस्था में उल्टियाँ कर देती थी।
मैं एक मिनिट भी नही सोया।
डॉक्टरों ने दूसरे दिन बताया कि रक्त में प्लेटलेट्स की संख्या तेजी से कम हो रही है। खून और देना होगा। डेंगू का वायरस खून का थक्का बनाने वाली प्लेटलेट्स पर हमला करता हैं । अगर प्लेटलेट्स खत्म तो पुरे शरीर के अंदरुनी अंगों से ख़ून का रिसाव शुरू हो जाता है। फिर बचने का कोई चांस नही।
मैंने अपना और खून देने का आग्रह किया मग़र रात को दिया था इस कारण मना कर दिया गया।
मैंने कॉलेज के दो चार दोस्तों को बुलाया। साले दस एक साथ आ गए। खून दिया। हिम्मत बंधाई। पैसों की जरूरत हो तो देने का आश्वासन दिया और चले गए। उस वक़्त पता चला दोस्त होना भी कितना जरूरी है। पैसों की कमी नही थी। घर से आ गए थे।
दूसरे दिन की रात को वो कुछ ठीक दिखी। बातें भी करने लगी।
रात को सब सोए थे। मैं उसके पास बैठा जाग रहा था।
मुझसे कहा:-" बीमार मैं हूँ तू नही। फिर ऐसी हालत क्यों बनाली?"
मैंने कहा:-" तू ठीक हो जा। मैं तो नहाते ही ठीक हो जाऊंगा।"
उसने उदास होकर पूछा ।:-" एक बात बता?"
"क्या?"
"मैंने एक दिन तुम्हारी जेब में गुलाब डाला था मिला?
"सिर्फ पंखुड़ियाँ मिली।"
"शाम को सम्भाला होगा।"
"हाँ"
"कुछ समझे थे?"
"नही।"
"क्यूँ?"
"सोचा था कॉलेज के किसी दोस्त की मज़ाक है।"
"और वो रोटियाँ?"
"कौनसी?"
"दिल के आकार वाली।"
"अब समझ में आ रहा है।"
"बुद्दू हो"
फिर वह हँसी। काफीदेर तक। निश्छल मासूम हंसी।
"कल सोए थे क्या?"
"नही।"
"अब सो जाओ। मैं ठीक हूँ मुझे कुछ न होगा।"
सचमुच नींद आ रही थीं।
मग़र मैं सोया नही।
मग़र वह सो गई।
फिर घंटेभर बाद वापस जाग गई।
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मैं ऊंघ रहा था।
"सुनो।"
"हाँ।मैं नींद में ही बोला।
"ये बताओ ये बीमारी छूने से किसी को लग सकती है क्या?"
"नही, सिर्फ एडीज मच्छर के काटने से लगती है।"
"इधर आओ।"
मैं उसके करीब आ गया।
"एक बार गले लग जाओ। अगर मर गई तो ये आरज़ू बाकी न रह जाए।"
"ऐसा ना कहो प्लीज।" मैं इतना ही कह पाया।
फिर वो मुझसे काफी देर तक लिपटी रही और सो गई।
फिर उसे ढंग से लिटाकर मैं भी एक खाली बेड पर सो गया।
मग़र सुबह मैं तो उठ गया। और वो नही उठी। सदा के लिए सो गई। मैंने उसे जगाने की बहुत कोशिश की थी।पर आँख भी न खोली उसने।
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